RBSE Class 10 Hindi Board Paper 2018 English Medium

Rajasthan RBSE Class 10 Hindi Board Paper 2018 English Medium

Here we have given  Class 10 R.B.S.E BOARD Hindi Paper of year 2018 for English Medium Students.



Rajasthan RBSE Class 10 Hindi Board Paper 2018 English Medium




पूर्णांक : 80
समय : 3¼ घंटे

परीक्षार्थियों के लिए सामान्य निर्देश
  1. परीक्षार्थी सर्वप्रथम अपने प्रश्न-पत्र पर नामांक अनिवार्यतः लिखें।
  2. सभी प्रश्न हल करने अनिवार्य हैं।
  3. प्रत्येक प्रश्न का उत्तर दी गई उत्तर-पुस्तिका में निर्धारित शब्द-सीमा में लिखें।
  4. जिन प्रश्नों में आन्तरिक खण्ड हैं, उन सभी के उत्तर एक साथ ही लिखें।
खण्ड : 1
निम्नलिखित गद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
कबीर ने समाज में रहकर समाज का बड़े समीप से निरीक्षण किया। समाज में फैले बाह्याडंबर, भेदभाव, साम्प्रदायिकता आदि का उन्होंने पुष्ट-प्रमाण लेकर ऐसा दृढ़ विरोध किया कि किसी की हिम्मत नहीं हुई जो उनके अकाट्य तर्को को काट सके। कबीर का व्यक्तित्व इतना ऊँचा था कि उनके सामने टिक सकने की हिम्मत किसी में नहीं थी। इस प्रकार उन्होंने समाज तथा धर्म की बुराइयों को निकाल-निकालकर सबके सामने रखा। ऊँचा नाम रखकर संसार को ठगने वालों के नकली चेहरों को सबको दिखाया और दीन-दलितों को ऊपर उठाने का उपदेश देकर अपने व्यक्तित्व को सुधार कर सबके सामने एक महान् आदर्श प्रस्तुत कर सिद्धान्तों का निरूपण किया। कर्म, सेवा, अहिंसा तथा निर्गुण मार्ग का प्रसार किया। कर्म-काण्ड तथा मूर्तिपूजा का विरोध किया। अपनी साखियों, रमैनियों तथा शब्दों को बोलचाल की भाषा में रचकर सबके सामने एक विशाल ज्ञानमार्ग खोला। इस प्रकार कबीर ने समन्वयवादी दृष्टिकोण अपनाया और कथनी-करनी की एकता पर बल दिया। वे महान् युगदृष्टा, समाज-सुधारक तथा महान् कवि थे। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम के बीच समन्वय की धारा प्रवाहित कर दोनों को ही शीतलता प्रदान की।
प्रश्न 1.
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक लिखिए।
प्रश्न 2.
कबीर के व्यक्तित्व की क्या विशेषता थी?
प्रश्न 3.
धर्म के विषय में कबीर का क्या दृष्टिकोण था?
निम्नलिखित पद्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़कर दिए गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए :
ओ बदनसीब अन्धो! कमजोर अभागो,
अब तो खोलो नयन नींद से जागो।
वह अघी? बाहुबल का जो अपलापी है,
जिसकी ज्वाला बुझ गई, वही पापी है।
जब तक प्रसन्न यह अनल सगुण हँसते हैं,
है जहाँ खड्ग, सब पुण्य वहीं बसते हैं।
वीरता जहाँ पर नहीं, पुण्य का क्षय है,
वीरता जहाँ पर नहीं, स्वार्थ की जय है।
तलवार पुण्य की सखी, धर्म पालक है,
लालच पर अंकुश कठिन, लोभ सालक है।
असि छोड़, भीरु बन जहाँ धर्म सोता है,
पावक प्रचण्डतम वहाँ प्रकट होता है।
प्रश्न 4.
भारतवासियों के प्रति कवि क्यों आक्रोशित है?
प्रश्न 5.
पुण्य का क्षय एवं स्वार्थ का उदय कब होता हैं?
प्रश्न 6.
धर्म का पालन किस प्रकार से किया जा सकता है?
खण्ड : 2
प्रश्न 7.
दिए गए बिन्दुओं के आधार पर निम्नलिखित में से किसी एक विषय पर लगभग 300 शब्दों में निबंध लिखिए: [8]
(क) समाचार-पत्रों का महत्त्व
1. प्रस्तावना
2. समाचार-पत्रों का वर्तमान स्वरूप
3. समाचार-पत्रों का दायित्व
4. उपसंहार
(ख) राजस्थान में गहराता जल संकट
1. प्रस्तावना
2. जल संकट के कारण
3. जल संकट निराकरण के उपाय
4. उपसंहार
(ग) उपभोक्तावाद और भारतीय संस्कृति
1. प्रस्तावना
2. पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव
3. उपभोक्तावाद, उदारवाद और आर्थिक सुधार
4. उपसंहार
(घ) राष्ट्रीय विकास में महिलाओं की भागीदारी
1. प्रस्तावना व स्वरूप
2. राष्ट्र विकास में महिला भागीदारी की आवश्यकता
3. कामकाजी महिलाओं की समस्या व उनका समाधान
4. उपसंहार
प्रश्न 8.
आपका नाम ईशान्त है। आप लक्ष्मीनगर, जयपुर के हैं। आपके क्षेत्र में अक्सर अनियमित बिजली कटौती की समस्या रहती है। नियमित विद्युत सप्लाई दिलाने हेतु मुख्य अभियंता विद्युत’, जयपुर को एक शिकायती पत्र लिखिए।
अथवा
स्वयं को रतलाम की पुस्तक विक्रेता दीपक मानते हुए पुस्तक महल, नई दिल्ली को नवीनतम पुस्तक सूची भेजने हेतु एक पत्र लिखिए।
खण्ड : 3
प्रश्न 9.
कर्म के आधार पर क्रिया के भेद बताते हुए उनकी परिभाषा लिखिए। [3]
प्रश्न 10.
“राधा ने मिठाई खाई।”वाक्य में निहित कारक, काल और वाच्य लिखिए। [3]
प्रश्न 11.
बहुब्रीहि समास की सोदाहरण परिभाषा लिखिए। [2]
प्रश्न 12.
निम्नलिखित वाक्यों को शुद्ध करके लिखिए: [2]
(क) धोबी ने अच्छे कपड़े धोए।
(ख) सुदामा पक्के कृष्ण के मित्र थे।
प्रश्न 13.
निम्नलिखित मुहावरों का अर्थ लिखिए [2]
(क) बालू से तेल निकालना
(ख) अंधे की लाठी होना।
प्रश्न 14.
‘चट मंगनी पट ब्याह’ लोकोक्ति का अर्थ लिखिए।
खण्ड : 4
प्रश्न 15.
निम्नलिखित पद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए: [6]
सीत को प्रबल सेनापति कोपि चढ्यो दल,
निबल अनल गयौ सूरि सियराइ कै।
हिम के समीर, तेई बेरमैं विषम तीर,
रही है गरम भौन कोनन मैं जाइ कै।
धूमनैन बहैं, लोग आगि पर गिरे हैं,
हिय सौं लगाई रहैं नैंक सुलगाई कै।
मानो भीत जानि महा सीत हैं पसारि पानि,
छतियाँ की छाँह राख्यौ पाउक छिपाइ कै।
अथवा
विशाल मंदिर की यामिनी में,
जिसे देखना हो दीपमाला।
तो तारकागण की ज्योति उसका,
पता अनूठा बता रही है।
प्रभो! प्रेममय प्रकाश तुम हो,
प्रकृति-पद्मिनी के अंशुमाली।
असीम उपवन के तुम हो माली
धरा बराबर बता रही है।
जो तेरी होवे दया दयानिधि,
तो पूर्ण होता ही है मनोरथ
सभी ये कहते पुकार करके,
यही तो आशा दिला रही है।
प्रश्न 16.
निम्नलिखित गद्यांश की सप्रसंग व्याख्या कीजिए: [6]
मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो रखना ही होगा। दीवार में दो खूटियाँ गाड़ी गईं। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज को कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर बिराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गरमी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं। बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से, या पंखे से चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया। फिर बड़े जोर-जोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे परं डाल दी गई।
अथवा
एक उपवन को पाकर भगवान को धन्यवाद देते हुए उसका आनन्द नहीं लेना और बराबर इस चिन्ता में निमग्न रहना कि इससे भी बड़ा उपवनं क्यों नहीं मिला। यह एक ऐसा दोष है। जिससे ईष्र्यालु व्यक्ति का चरित्र भी भयंकर हो उठता है। अपने अभाव पर दिन-रात सोचते वह सृष्टि की प्रक्रिया को भूलकर विनाश में लग जाता है और अपनी उन्नति के लिए उद्यम करना छोड़कर वह दूसरों को हानि पहुँचाने को ही अपना श्रेष्ठ कर्तव्य समझने लगता है।
प्रश्न 17.
पहली कियां उपाव, दव दुसमण आमय दी। पचंड हुआ विस वाव, रोभा घालै राजिया।। उपर्युक्त सोरठे का भावार्थ लिखिए।
(उत्तर सीमा 200 शब्द)
अथवा
‘लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ पाठानुसार परशुराम की क्रोधाग्नि कैसे शांत हुई ? लिखिए।
प्रश्न 18.
‘वह तो बस आहुति देना ही अपना धर्म समझता है।’ सागर के इस कथन का क्या अभिप्राय है? (उत्तर सीमा 200 शब्द)
अथवा
लोक संत पीपा ने निर्गुण भक्ति काव्यधारा में किस प्रकार योगदान दिया है ? लिखिए।
निम्नलिखित प्रश्नों का उत्तर 40 से 50 शब्दों में दीजिए :
प्रश्न 19.
गोपियाँ किस लालच से कृष्ण की दासी बन गईं? [2]
प्रश्न 20.
‘कल और आज’ कविता में नागार्जुन ने ऋतु चक्र का सजीव वर्णन किस प्रकार किया है? [2]
प्रश्न 21.
‘कन्यादान’ कविता का मूल भाव अपने शब्दों में लिखिए। [2]
प्रश्न 22.
‘एक अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ निबंध की भाषाशैली पर अपने विचार लिखिए। [2]
प्रश्न 23.
‘गौरा’ की मृत्यु का क्या कारण था? [2]
प्रश्न 24.
हामिद ने चिमटा खरीदने का ही निर्णय क्यों किया?[2]
प्रश्न संख्या 25 से 28 का उत्तर एक पंक्ति में दीजिए :
प्रश्न 25.
‘दामिनी दमक, सुर चाप की चमक, स्याम’ सेनापति की उक्त पंक्तियों में किस ऋतु का वर्णन है? [1]
प्रश्न 26.
‘मातृ-वन्दना’ कविता में कवि ने अपने श्रम का श्रेय किसे दिया है? [1]
प्रश्न 27.
आध्यात्मिक दृष्टि से कन्याकुमारी का क्या महत्त्व है? [1]
प्रश्न 28.
परनिन्दा के विषय में दादू ने क्या कहा है? [1]
प्रश्न 29.
निम्न रचनाकारों का संक्षिप्त परिचय दीजिए: [4]
(1) तुलसीदास
(2) मुंशी प्रेमचन्द
प्रश्न 30.
निम्नाङ्कित यातायात संकेतों का क्या अर्थ है?
RBSE Class 10 Hindi Model Paper 2018 Q 30
उत्तर
उत्तर 1:
उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक है-”समाजसुधारक कबीर” अथवा ‘कबीर का समन्वयवादी दृष्टिकोण”।
उत्तर 2:
कबीर का व्यक्तित्व इतना ऊँचा था कि उनके सामने टिक सकने की हिम्मत किसी में नहीं थी। कबीर महान् युगदृष्टा, समाज सुधारक तथा महान् कवि थे।
उत्तर 3:
धर्म के विषय में कबीर का समन्वयवादी दृष्टिकोण था। उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम धर्म में व्याप्त बुराइयों को निकाल-निकालकर सबके सामने रखा। कर्म, सेवा, अहिंसा तथा निर्गुण मार्ग का प्रसार किया। कर्मकाण्ड तथा मूर्तिपूजा का विरोध किया।
उत्तर 4:
भारतवासियों के प्रति कवि इसलिए आक्रोशित है। क्योंकि वे कमजोर, बदनसीब, भाग्यहीन और बाहुबले की ताकत भी कम हो गई है, वे पापी हैं। अब वे अपनी आँखों को खोलें।
उत्तर 5:
पुण्य का क्षय और स्वार्थ को उदय वीरता के अभाव में होता है। वीरता जहाँ नहीं होती है वहाँ पुण्य का क्षय और स्वार्थ का उदय होता है।
उत्तर 6:
बाहुबल और तलवार से ही धर्म का पालन होता है। जहाँ पर वीरों ने तलवार को छोड़ दिया वहाँ धर्म डरपोक बन कर सो जाता है। अर्थात् ताकत और तलवार से ही धर्म रक्षा और अपने कर्तव्य का पालन किया जा सकता है।
उत्तर 7:
(क) समाचार-पत्रों का महत्त्व
1. प्रस्तावना-समाचार-पत्र आज मानव की दिनचर्या का एक अभिन्न अंग बन गया है। प्रजातंत्र में तो समाचार-पत्र जनता की
आवाज होते हैं। सत्तारूढ़ दल को सचेत करना, उनकी गलत नीतियों की आलोचना करना, जनता को जागरूक करना आदि इनके अनेक कार्य हैं। समाचार-पत्र देश की प्रगति की तस्वीर जनता के सामने रखते हैं। भ्रष्टाचार की पोल खोलते हैं। इनका कार्य स्वस्थ जनमत तैयार करना और जनता के अधिकारों को संरक्षण देना भी है।
वर्तमान काल में समाचार-पत्र-पत्रिकाओं का विशेष महत्त्व है। देश की व्यावसायिक उन्नति में समाचार-पत्र बहुत बड़े साधन हैं। सरकारी तथा गैर-सरकारी नौकरियों की सूचनाएँ आजकल समाचारपत्रों में मुख्यतया छपती हैं। इसी प्रकार वर-वधू से सम्बन्धित वैवाहिक विज्ञापन, सम्पत्ति क्रय-विक्रय, चिकित्सा, विविध प्रकार की सेवायोजनाएँ आदि से सम्बन्धित विज्ञापन प्रकाशित होने से आम जनता लाभान्वित होती है। कुछ पत्रिकाएँ साप्ताहिक-पाक्षिक स्तर पर प्रकाशित होती हैं; इनमें धार्मिक, साहित्यिक, नारियों से सम्बन्धित स्वरोजगार तथा गृह-उद्योग सम्बन्धी सामग्री प्रकाशित रहती है। इससे सामाजिक चेतना को सर्वाधिक लाभ हो रहा है।
2. समाचार-पत्रों का वर्तमान स्वरूप-समाचार-पत्र प्रजातंत्र के सजग प्रहरी होने के नाते जन-जागृति में सहायक है। ये सत्तारूढ़ दल की नीतियों, उपलब्धियों और कमियों को जनता के सामने खुले रूप में जहाँ रखते हैं, वहीं विपक्षी दलों की सरकार विरोधी आवाज को भी खुलकर जनता के सामने रखते हैं। भ्रष्ट अधिकारियों एवं नेताओं के कारनामों से जनता को परिचित कराते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि समाचार-पत्र जन जागृति में सहायक होते हैं।
समाचार-पत्र अनियंत्रित जनों पर नियंत्रण करते हैं। चाहे भ्रष्टाचार, दुराचार या अपराधी कुकृत्य हो, समाज और राष्ट्रविरोधी कार्य हो, अनैतिक और अन्याय पूरित कार्य हो, इन सब बेलगामों पर लगाम लगाने के उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को समाचार-पत्र बड़ी सजगता से निभाते हैं।
3. समाचार-पत्रों का दायित्व-समाचार-पत्र ज्ञान-वृद्धि और शिक्षा का साधन होने के साथ ही प्रचार का भी सशक्त माध्यम
है। इसलिए यह लोक-कल्याण में भी सहायक है। समाचार-पत्र विभिन्न पर्यो, त्योहारों, उत्सवों से सम्बन्धित जानकारियाँ देकर लोककल्याण के कार्यों में सहायक होते हैं, वहीं ये विज्ञापनों के माध्यमों से रोजगार सम्बन्धी सूचनाएँ देकर लोक कल्याणकारी कार्य करते हैं।
4. उपसंहार-आज वैचारिक स्वतन्त्रता का युग है। हमारे देश में स्वतन्त्रता संग्राम में समाचार-पत्र-पत्रिकाओं का अद्वितीय योगदान रहा। समाचारों के प्रकाशन में समाचार-पत्रों को दृष्टिकोण निष्पक्ष एवं जनहितकारी होना चाहिए। सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना की दृष्टि से आज के युग में समाचार-पत्रों का अत्यधिक महत्त्व है।
(ख) राजस्थान में गहराता जल संकट
1. प्रस्तावना- प्रसिद्ध सूक्त कथन है कि जल ही जीवन है, जल ही अमृत है। इस सूक्ति का आशय यही है कि इस सृष्टि में जितने भी भौगोलिक पदार्थ पाए जाते हैं, उन सब में जल ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। जल के बिना पेड़, पौधे, पशु-पक्षी, वनस्पति, खेतखलिहान, हरियाली सभी व्यर्थ हैं। प्राणी जगत भी अपने जीवन के लिए जल पर ही निर्भर रहता है। इसी कारण से शास्त्रों में जिन पाँच भौतिक पदार्थों का उल्लेख किया गया है, उनमें पृथ्वी के बाद जल का ही स्थान आता है।
‘क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा,
पंच तत्व सम अधम सरीरा।
मंगल इत्यादि ग्रों पर प्राणी जगत तथा वनस्पति जगत का विकास इसलिए सम्भव नहीं हो पाया, क्योंकि वहाँ पर जल नहीं है। नवीनतम वैज्ञानिक अनुसंधानों से इस तथ्य की पुष्टि हो जाती है। इस पृथ्वी पर जहाँ भी जल है, वहीं पर मानव तथा प्राणी सम्पदा है; परन्तु जहाँ जल का अभाव है, वहाँ मरुस्थल का विस्तार है। जहाँ जो भी प्राणी रहते हैं, उन्हें जल के बिना नाना प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं। राजस्थान के कल भ-भाग में से 61 प्रतिशत भाग मरुस्थल के रूप में है, जो कि भारी जल संकट के कारण आक्रान्त है। बादल यहाँ आते हैं, गर्जना करते हैं, परन्तु बिना वर्षा किये ही चले जाते हैं। वर्षा की कमी के कारण राजस्थान में जल संकट और गहराता चला जा रहा है।
2. जल संकट के कारण- राजस्थान में जल संकट के निम्न कारण रहे हैं
  • प्राचीनकाल में राजस्थान में सरस्वती नदी प्रवाहित होती थी; परन्तु जलवायु परिवर्तन के कारण आज सरस्वती नदी विलुप्त हो चुकी है।
  • राजस्थान में ऐसी कोई नदी नहीं है जो वर्षभर बहती रहे तथा सम्पूर्ण राजस्थान की प्यास बुझाती रहे।
  • चम्बल तथा बनास नदियाँ यद्यपि वर्षभर बहती हैं, परन्तु गर्मियाँ आते ही इनका पानी भी काफी कम हो जाता है। ये नदियाँ दक्षिणी-पूर्वी राजस्थान के कुछ भाग को ही हरा-भरा रख पाती हैं। परिणामस्वरूप राज्य में जल संकट बढ़ता जा रहा है।
  • पश्चिमी राजस्थान में बाणगंगा तथा लूणी, खारी तथा गण्डक इत्यादि कई नदियाँ हैं; परन्तु वे वर्षाती नदियाँ हैं। वर्षा आने पर ये नदियाँ बहती हैं, परन्तु वर्षा जाने के साथ ही ये सभी सूख जाती हैं, परिणामस्वरूप राजस्थान का पश्चिमी भाग एक ओर जल संकट से जूझता है, तो दूसरी ओर इस भाग में मरुस्थल का तेजी से प्रसार होता जा रहा है।
  • राज्य में उचित जल नीति न होने के कारण आज भूजल स्रोतों का तेजी से दोहन किया जा रहा है जिससे भूमि जल का स्तर तेजी से नीचे गिरता जा रहा है।
3. जल संकट निराकरण के उपाय-राजस्थान में जल संकट के निवारण हेतु निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं
  • भूगर्भ के जल के असीमित विदोहन पर प्रभावी ढंग से रोक लगाई जाए।
  • खनिज संसाधनों के असीमित विदोहन पर रोक लगाई जाए।
  • शहरों के नगर नियोजन में इस बात की व्यवस्था की जाए जिससे वर्षा का जल भूमि के अन्दर पहुँच सके।
  • बाँधों तथा एनीकटों का निर्माण करवाया जाए। कुओं, तालाबों, पोखरों तथा टाँकों को गहरा तथा चौड़ा करवायाजाए।
  • वर्षा जल के संग्रहण की ठोस व्यवस्था की जाए।
  • पंजाब, हरियाणा तथा गुजरात में बहने वाली नदियों के पानी को राजस्थान में लाने के अधिक से अधिक प्रयास किये जाएँ।
  • सामाजिक वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत सड़कों के दोनों ओर खाली भूमि पर, रेलवे पट्टियों के दोनों ओर तथा खाली भूमि पर ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाये जाएँ।
  • अरावली विकास योजना के अन्तर्गत अरावली पर्वत श्रृंखला को फिर से हरा-भरा किया जाए, जिससे राज्य में पर्याप्त मात्रा में वर्षा हो सके।
4. उपसंहार-रहीमदास ने लिखा भी है
‘रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून।’
दूसरे शब्दों में जल ही जीवन है। जब जल ही नहीं तो जीवन अस्तित्वहीन हो जाता है। वास्तव में जल के बिना जीवन विविध आशंकाओं से परिपूर्ण बना रहता है। सरकार तथा समाजसेवी संस्थाओं को विविध स्रोतों से सहायता लेकर जल संकट के निवारण हेतु युद्ध स्तर पर प्रयास करने चाहिए, तभी मरुधरा राजस्थान में खुशहाली लाई जा सकती है।
(ग) उपभोक्तावाद और भारतीय संस्कृति
1. प्रस्तावना–आज के वैज्ञानिक युग में उपभोक्तावादी संस्कृति बढ़ रही है। अब पुराने रहन-सहन, धार्मिक-आध्यात्मिक जीवन एवं सात्त्विक आचरण को पुराणपंथी तथा ढोंग बताया जाता है। भौतिकवादी प्रवृत्ति उत्तरोत्तर बढ़ने से अब मौज-मस्ती, ऐशो-आराम, फैशनपरस्ती एवं पाश्चात्यानुकरण को जिन्दगी का सर्वश्रेष्ठ पक्ष माना जा रहा है। यह भौतिकतावादी संस्कृति कुछ तो पाश्चात्य देशों से आयातित है तथा कुछ नयी सभ्यता की होड़ाहोड़ी से चल रही है। इस भौतिकतावादी प्रवृत्ति के कारण मानवीय मूल्यों का पतन एवं ह्रास भी हो रहा है।
2. पाश्चात्य संस्कृति का दुष्प्रभाव-भौतिकता के साधनों की पूर्ति करने से अनेक कुप्रभाव देखे जा रहे हैं। इससे निम्न-मध्यम वर्ग की आर्थिक स्थिति बिगड़ रही है, ऋण-बोझ बढ़ रहा है, फलस्वरूप परिवार में अशान्ति एवं कलह बढ़ रहा है। ऋण-मुक्ति की खातिर मानसिक तनाव बढ़ने से आत्महत्या तक की जा रही है। अब खुलेआम छीना-झपटी, बेईमानी, मक्कारी आदि अपराधी कृत्य इसी कारण बढ़ रहे हैं।
कर्मचारियों के द्वारा रिश्वत लेना, गबन तथा फरेब करना, भ्रष्टाचार को शिष्टाचार मानना भी बढ़ती भौतिकता का ही कुप्रभाव है।भौतिकता की प्रवृत्ति के कारण सर्वाधिक हानि मानवीय मूल्यों की हुई है। अब आपसी सम्बन्ध नहीं मानना, भाई-बन्धुओं की सम्पत्ति हड़पने का प्रयास करना, बलात्कार, धोखाधड़ी, सहानुभूति संवेदना न रखना, दूध-घी आदि में मिलावट करना, प्रबल स्वार्थी भावना रखना आदि अनेक बुराइयों से सामाजिक सम्बन्ध तार-तार हो रहे हैं। इसी प्रकार आज सभी पुराने आदर्शों एवं मानव-मूल्यों का पतन हो रहा है।
3. उपभोक्तावाद, उदारवाद और आर्थिक सुधार भौतिकतावादी प्रवृत्ति वस्तुतः चार्वाक् मत का नया रूप है। आज हर आदमी अपनी जेब का वजन न देखकर मोबाइल, टेलीफोन, टेलीविजन, फ्रिज, कूलर, स्कूटर, कार आदि भौतिक साधनों की जुगाड़ में लगा रहता है। बैंकों से अथवा उत्पादक कम्पनियों से ऋण लेकर व्यक्ति इनकी पूर्ति कर तो लेता है, परन्तु ऋण चुकाने के चक्कर में वह कितनी परेशान रहता है, इसे हर कोई जानता है। फैशन के अनुसार कपड़े एवं जूते पहनना, कोल्ड ड्रिक एवं मिनरल वाटर का अभ्यस्त बनना, क्लब व किटी पार्टी को अपनी इज्जत का प्रतीक मानना तथा भौतिक सुविधाओं को जिन्दगी का सच्चा सुख बताना आज मुख्य सिद्धान्त बन गया है। इस तरह निम्न-मध्यम वर्ग से लेकर उच्च वर्ग तक भौतिकता का व्यामोह फैल रहा है।
4. उपसंहार-आज भौतिकतावाद का युग है। भौतिकता की चकाचौंध में मानव इत्ना विमुग्ध हो रहा है कि वह मानवीय अस्मिता को भूल रहा है। इस कारण सामाजिक जीवन पर कुप्रभाव पड़ रहा है। और मानव-मूल्यों एवं आदर्शों का लगातार ह्रास हो रहा है। यह स्थिति मानव सभ्यता के लिए चिन्तनीय है।
(घ) राष्ट्रीय विकास में महिलाओं की भागीदारी
1. प्रस्तावना व स्वरूप-भारतीय संस्कृति की पावन परम्परा में नारी की सदैव से ही महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। नारी प्रेम, दया, त्याग व श्रद्धा की प्रतिमूर्ति है और ये आदर्श मानव-जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। किसी देश की अवनति अथवा उन्नति वहाँ के नारी समाज पर अवलम्बित होती है। जिस देश की नारी जागृत और शिक्षित होती है, वही देश संसार में सबसे अधिक उन्नत माना जाता है।
भारतीय समाज में नारी का स्वरूप सम्माननीय रहा है, उसकी प्रतिष्ठा अर्धांगिनी के रूप में मान्य है। प्राचीन भारत में सर्वत्र नारी का देवी रूप पूज्य था। वैदिक काल में नर-नारी के समान अधिकार एवं समान आदर्श थे, परन्तु उत्तर-वैदिक काल में नारी की सामाजिक स्थिति में गिरावट आयी। मध्यकाल में मुस्लिम जातियों के आगमन से भारतीय समाज में कठोर प्रतिक्रिया हुई। उसके विषैले पूँट नारी को ही पीने पड़े। विधर्मियों की कुदृष्टि से कहीं कुल-मर्यादा को आँच न लग जाए, अतः पर्दा प्रथा का जन्म हुआ; जौहर प्रथा, सती प्रथा का उदय हुआ। समाज में अनैतिकता, कुरीतियों, कुप्रथाओं और रूढ़ियों ने पैर जमा लिये। नारी की स्वतन्त्रता के सभी मार्ग बन्द किये गये।
2. राष्ट्र विकास में महिला भागीदारी की आवश्यकता-उन्नीसवीं शताब्दी में ज्ञान-विज्ञान का प्रचार बढ़ा। भारतीय समाजसुधारकों ने नारी की हीन अवस्था पर ध्यान दिया। उन्होंने सर्वप्रथम नारी की दशा में सुधार आवश्यक बतलाया। स्त्री-शिक्षा का प्रचारप्रसार हुआ। वर्तमान युग में हम नारी के दो रूप देखते हैं, एक तो वे नारियाँ हैं जो देहातों में रहती हैं, अशिक्षित हैं व दूसरी शहरों में रहने वाली शिक्षित महिलाएँ हैं। देहातों की नारियाँ शिक्षा के अभाव में अभी भी सामाजिक कुरीतियों से ग्रस्त हैं। शहरों की शिक्षित नारियों में मानसिक विकृति आ गयी है, फलस्वरूप तथाकथित सभ्य नारी अपने अंगों के नग्न-प्रदर्शन को ही सभ्यता समझने लगी है। पाश्चात्य सभ्यता का अन्धानुकरण करने वाली आधुनिक नारी अपने प्राचीन रूप से बिल्कुल भिन्न हो गई है।
3. कामकाजी महिलाओं की समस्या व उनका समाधान- भारतीय नारी ने स्वतन्त्र भारत में जो प्रगति की है, उससे देश की उन्नति हो रही है, रहन-सहन का स्तर बढ़ रहा है। अब नारी पुरुप के समान राष्ट्रपति, मन्त्री, डॉक्टर, वकील, जज, शिक्षिका, प्रशासनिक अधिकारी आदि सभी पदों और सभी क्षेत्रों में कुशलता से काम कर रही हैं। सारे देश में नारी-शिक्षा को प्राथमिकता दी जा रही है। नारियाँ सशक्तिकरण के अनेक कार्यक्रम चलाये जा रहे हैं, फिर भी नारी को वैदिक युग में जो सम्मान और प्रतिष्ठा व्याप्त थी, वह आधुनिक सुसभ्य नारी को अभी तक नहीं मिली है।
स्वतन्त्र भारत की नारी नितान्त स्वतन्त्रता चाहती है, पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण कर वह आधुनिक बनना चाहती है। इस तरह के आचरण से भारतीय नारी के परम्परागत आदर्शों की अवनति हो रही है। ग्रामीण क्षेत्रों की स्त्रियाँ अभी भी कुरीतियों से जकड़ी हुई हैं। पिछड़े वर्ग के लोगों में नारी का शोषण-उत्पीड़न निरन्तर चल रहा है। इन सब बुराइयों का निवारण करने में नारी की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।
4. उपसंहार-हमारे देश में प्राचीन काल में नारी को अतीव पूज्य स्थान प्राप्त था, परन्तु मध्यकाल में वह पुरुष की दासी बनकर रह गई। स्वतन्त्र भारत में नारी पुनः अपने गौरव एवं आदर्शों की प्रतिष्ठा करने लग गई है। हमारे राष्ट्रीय उत्थान में नारी की भूमिका सर्वमान्य है, इसलिए नारी को आदर्श मर्यादित आचरण करना चाहिए।
उत्तर 8:
सेवा में,
श्रीमान् मुख्य विद्युत अभियन्ता महोदय,
लक्ष्मी नगर, जयपुर।
विषय–विद्युत आपूर्ति नियमित एवं पर्याप्त रूप से कराने हेतु।
महोदय,
मैं आपका ध्यान विद्युत की अनियमित स्थिति की ओर आकर्षित करना चाहता हूँ।
इन दिनों बोर्ड की वार्षिक परीक्षाएँ चल रही हैं और सभी विद्यार्थी रात्रि को देर तक पढ़ाई करते हैं। इन्हीं दिनों बिजली बिना किसी पूर्व सूचना के चली जाती है। ऐसी स्थिति रात्रि में कई बार उत्पन्न हो रही है। इससे विद्यार्थियों की पढ़ाई में बहुत बाधा आ रही है। संभवत: आपके विभाग के कर्मचारियों का ध्यान हमारी समस्याओं की ओर गया ही नहीं है।
आपसे विनम्र प्रार्थना है कि मार्च के महीने में बिजली की आपूर्ति नियमित एवं पर्याप्त रूप से कराने को सुनिश्चित करें, ताकि हम बोर्ड परीक्षा की तैयारी ठीक प्रकार से कर सकें।
इस कृपा के लिए हम आपके आभारी रहेंगे।
धन्यवाद सहित,
भवदीय
ईशान्त
लक्ष्मी नगर, जयपुर।
अथवा
सेवा में,
श्रीमान् प्रबन्धक महोदय,
पुस्तक महल, दिल्ली।
दिनांक : 10 सित_______
विषय-नवीनतम पुस्तक सूची भेजने हेतु।
मान्यवर,
उपर्युक्त विषय के संदर्भ में लेख है कि मैंने पिछले माह पुस्तकें बेचने की दुकान खोली है जिसके लिए मुझे पुस्तक महल प्रकाशन से प्रकाशित पुस्तकों की नवीनतम सूची की आवश्यकता है। अतः आपसे अनुरोध है कि मुझे शीघ्र ही नवीनतम पुस्तकों की सूची भिजवाने का कष्ट करें जिससे मैं पुस्तकें जल्दी से जल्दी सँगा सकें। उस सूची में पुस्तक का मूल्य तथा उस पर मिलने वाली रियायत की सूचना अंकित होनी चाहिए।
भवदीय
दीपक
रतलाम।
उत्तर 9:
कर्म के आधार पर क्रिया के दो भेद हैं:
  1. सकर्मक क्रिया और
  2. अकर्मक क्रिया।
1. सकर्मक क्रिया-जिस क्रिया का प्रभाव कर्म पर पड़ता है, उसे सकर्मक क्रिया कहते हैं।
2. अकर्मक क्रिया-जिस क्रिया का कोई कर्म नहीं होता अपितु उसका प्रभाव कर्ता पर ही पड़ता है, उसे अकर्मक क्रिया कहते हैं।
उत्तर 10:
इस वाक्य में कर्ता कारक, भूतकाल और कर्तृवाच्य है।
उत्तर 11:
बहुव्रीहि समास-जिस समास का कोई भी पद प्रधान न हो और इन दोनों पदों का सम्बन्ध किसी अन्य पद से हो, अर्थात् कोई तीसरा पद प्रधान हो, उसे बहुब्रीहि समास कहते हैं; जैसे – ‘लंबोदर’ – लम्बा है उदर जिसका अर्थात् गणेश।
उत्तर 12:
(क) धोबी ने कपड़े अच्छे धोए।
(ख) सुदामा, कृष्ण के पक्के मित्र थे।
उत्तर 13:
(क) बालू से तेल निकालना–व्यर्थ परिश्रम करना।
(ख) अंधे की लाठी–एकमात्र सहारा।
उत्तर 14:
बिना किसी खर्च के कार्य का जल्दी हो जाना।
उत्तर 15:
प्रसंग प्रस्तुत-
पद्यांश कवि सेनापति द्वारा विरचित ‘ऋतुवर्णन’ से लिया गया है। इसमें कवि ने शिशिर ऋतु का सुन्दर वर्णन किया है।
व्याख्या-
कवि सेनापति वर्णन करते हुए कहते हैं कि शिशिरऋतु में सर्दी की अधिकता का प्रकोप सब ओर फैल जाता है, वह दल-बल सहित चढ़ाई कर लेता है। इस समय उसकी सेना या शक्ति के सामने आग भी कमजोर पड़ जाती है तथा सूर्य भी ठण्डा (सहने करने योग्य) हो जाता है। शीत ऋतु की बर्फीली हवा इस तरह चलने लगती है कि जैसे पैने तीर बरस रहे हों तथा गर्म हवा भवनों के भीतर कोनों में जाकर छिपी रहती है। इस ऋतु में सर्दी से बचने के लिए लोग आग को घेरकर बैठे रहते हैं, आग पर गिर पड़ते हैं और उसे लगातार सुलगाते हुए अपने हृदय से लगाये रहते हैं, अर्थात् निरन्तर आग के अति निकट बैठकर छाती को गरमाते रहते हैं। कवि सेनापति कहते हैं कि मानो सर्दी से अत्यधिक भयभीत होकर लोग अपने हाथ फैलाकर आग को अपनी छाती की छाया में छिपाकर रखते हैं।
भाव यह है कि लोग हाथ फैलाकर आग सेकते हैं, छाती व शरीर को तपाते हैं। मानो आग सर्दी से भयभीत रहती है, इसीलिए लोग अपने हाथ फैलाकर उसकी रक्षा करते हुए उसे अपनी छाती की छाया में छिपाकर रखते हैं, ताकि शीत से अग्नि की रक्षा हो सके।
विशेष-
  1. शिशिर ऋतु के प्राकृतिक वातावरण को स्वाभाविक एवं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया गया है।
  2. सर्दी से आग को ताप कमजोर पड़ना, सूर्य को तेज कम लगना और लोगों के द्वारा आग को छाती से लगाकर उसकी रक्षा करना आदि वर्णन में उक्ति-चमत्कार है। आग एवं शिशिर पर मानवव्यापारों का आरोप किया गया है।
  3. अनुप्रास, स्वभावोक्ति, उत्प्रेक्षा व मानवीकरण अलंकारों का प्रयोग हुआ है। कवित्त छन्द की गति-यति सुन्दर है।
अथवा
उत्तर :
प्रसंग-
यह अवतरण जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित ‘प्रभो’ शीर्षक कविता से उधृत है। इसमें ईश्वर को समस्त सृष्टि का पालकरक्षक और सभी के मनोरथों को पूर्ण करने वाला बताया गया है।
व्याख्या-
कवि कहता है कि रात्रि में जिसे इस संसार रूपी विशाल मन्दिर में दीपकों की कतार देखनी हो, वह रात में चमकते हुए तारों को देखे, क्योंकि तारों की ज्योति में उसे ईश्वर की सत्ता का पता मिल जाता है, उसकी अनुपम छवि का बोध हो जाता है।
कवि वर्णन करते हुए या स्तुति करते हुए कहता है कि हे ईश्वर! इस समस्त प्रकृति रूपी कमलिनी को विकसित करने वाले सूर्य तुम ही हो और तुम्हारा ही यह प्रेममय प्रकाश सब ओर फैल रहा है। तुम ही इस सृष्टि या संसार रूपी उपवन के माली अर्थात् पालक एवं रक्षक हो, यही बात यह धरती बराबर बता रही है।
हे ईश्वर! यदि हम भक्तों पर तुम्हारी दया हो जाती है तो हे दया के भण्डार प्रभु! हमारे सारे मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। इस संसार के सभी लोग यही बात पुकार कर कहते हैं तथा इसी से मुझे अपने मनोरथ के पूर्ण होने की आशा हो रही है। अर्थात् संसार में यही आस्था प्रचलित है कि मनुष्य के समस्त मनोरथ ईश्वर की कृपा-दया से पूर्ण होते हैं।
विशेष-
  1. भक्ति-भाव के साथ आस्था-आशा का स्वर व्यक्त हुआ है।
  2. ईश्वर को समस्त सृष्टि का पालक-रक्षक बताकर उसकी महिमा व्यंजित हो गई है।
  3. भाषा तत्सम प्रधान है। रूपक एवं काव्यलिंग अलंकार प्रयुक्त हैं। कविता सुगेय है।
उत्तर 16:
प्रस्तुत गद्यांश मुंशी प्रेमचन्द द्वारा लिखित सुप्रसिद्ध कहानी ‘ईदगाह’ से लिया गया है। इस अंश में लेखक ने बालकों के अपने खिलौनों के प्रति प्रेम को बतलाया है।
व्याख्या-
लेखक कहता है कि ईद के मेले में हामिद के दोस्त मियाँ नूरे के वकील का अंत उनकी प्रतिष्ठा के अनुकूल तथा इससे ज्यादा गौरवमयी भाव से हुआ। नृरे का वकील जमीन पर अथवा अलमारी की ताक पर नहीं बैठ सकता था। अत: उस वकील की मर्यादा का विचार तो मन में रखना ही होगा ऐसा नूरे तथा उसके दोस्त सोच रहे थे। इसके लिए दीवार में दो खुटियाँ गाढ़ी गईं। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। नूरे ने पटरे पर कागज का कालीन बिछाया।
लेखक कहता है कि वकील साहब राजा भोज की तरह सिंहासन पर बैठ गये। बच्चे नूरे ने वकील को पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टाटियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। ऐसा सोच कर नूरे ने पंखा झलना शुरू किया। हो सकता है कि यहाँ मामूली पंखा भी ना हो। जब कानून की गरमी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं। बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगा। मालूम नहीं, पंखे की हवा से, या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्ग लोक से मृत्यु लोक में पहुँचे और उनका माटी का चोला माटी में ही मिल गया। उसके बाद फिर बड़े जोर-शोर से मातम और शोक हुआ तथा वकील साहब की टूटी अस्थि अर्थात् हड्डी घूरे में डाल दी गई।
विशेष-
  1. लेखक ने बच्चों की ऐसी स्वाभाविक बातें प्रस्तुत की हैं। इसमें बच्चों की खिलौनों के प्रति मानसिक दशा को बतलाया
  2. इससे लेखक के सूक्ष्म निरीक्षण, सहृदयता और बालमनोविज्ञान का परिचय मिलता है।
  3. भाषा सरल-सुबोध एवं प्रवाहपूर्ण है। वर्णन में चित्रात्मकता
अथवा
उत्तर :
प्रसंग यह गद्यावतरण रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा लिखित निबन्ध ‘ईष्र्या, तू न गई मेरे मन से’ शीर्षक से लिया गया है। विद्वान् लेखक ने ईष्र्यालु व्यक्ति की मनोवृत्ति को वर्णित किया है। उसने बताया है कि मनुष्य के मन में ईष्य जब घर कर जाती है तब उसके मन से सन्तोष का भाव महत्त्वाकांक्षाओं के बवण्डर में फैंस जाता है। ले कहता है कि
व्याख्या-
ईष्र्यालु व्यक्ति अपनी ईर्ष्या भावना के वशीभूत होकर अपनी आदत से लाचार हो जाता है और उसका सन्तोष कवट्ठी के पाले के दूसरी तरफ जाकर आवाज देने लगता है। इसी आधार पर उसे ईश्वर के द्वारा प्रदत्त की गयी वस्तु से आनन्द प्राप्त नहीं होता है और वह उसे तुच्छ ही समझने लगता है, क्योंकि उसके मन में बढ़ती हुई ईष्य उस वस्तु के महत्त्व को उसके मन में टिकने नहीं देती है। वह ईष्य के वशीभूत होकर केवल यही सोचता रहता है कि उसे जो उपवन रूपी सुखदायी वस्तु प्राप्त है उससे कहीं और अधिक प्राप्त हो जाए। इसी भावना से ईष्र्यालु व्यक्ति का मन चिन्ताग्रस्त रहता है।
परिणामस्वरूप उसका चरित्र दिन-प्रतिदिन और अधिक जटिल तथा भयंकर हो जाता है, जिससे वह अपने ही मन के संकुचित दायरे में बँधकर और अधिक दुःखी होता जाता है। वह अपने अभावों से मुक्ति पाने के लिये रात-दिन सोचता रहता है और इसी स्वार्थमय सोच में बँध कर सृष्टि की सहज प्रक्रिया को भी भूल जाता है। परिणामस्वरूप वह अपनी उन्नति के लिये उद्यम करना छोड़ देता है तथा बुरी भावना से ग्रस्त हो जाता है। उस दशा में दूसरों को हानि पहुँचाना उसका श्रेष्ठ कर्तव्य बन जाता है और वह इसी कर्तव्य को अपने जीवन में महत्त्व देने लगता है।
विशेष-
  1. लेखक ने ईर्ष्यालु व्यक्ति की मनोवृत्ति और उसके दु:खों की ओर संकेत किया है।
  2. ईष्र्या व्यक्ति को अवनति की ओर ले जाती है इसलिए व्यक्ति को ईष्य भाव से बचकर रहना चाहिए।
  3. लेखक ने मनोवैज्ञानिक चित्रण सरल भाषा-शैली में किया है।
उत्तर 17:
कवि कृपाराम खिड़िया ने अपने नीतिसम्मत सोरठों में हिम्मत एवं पराक्रम का महत्व, सत्संगति का लाभ, आपदा आने से पूर्व प्रबन्धन का महत्त्व, मानव जीवन में वाणी का वैशिष्ट्य और सद्गुणों का सम्मान आदि वर्णन किया है। इन सोरठों में कवि की बहुज्ञता, लोकानुभव एवं विद्वत्ता का समावेश हैं।
उपर्युक्त सोरठे का भावार्थ इस प्रकार हैं कवि कृपाराम अपने सेवक राजिया को सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे राजिया ! जंगल की आग (दावाग्नि), दुश्मन तथा रोग को रोकने का उपाय पहले ही कर लेना चाहिए। ये सब जब अत्यधिक बढ़ जाते हैं, तो बहुत कष्ट देते हैं। भाव यह है कि दावाग्नि, शत्रु एवं रोग जब बढ़ जाते हैं तो असाध्य बन जाते हैं, अत: इन्हें रोकने के उपाय पहले से कर देने चाहिए। इसलिए कवि सन्देश देना चाहता है कि आग, शत्रु और रोग को कभी भी कमजोर नहीं समझना चाहिए। हमें तत्परता के साथ इनकी रोकथाम का उपाय पहले से ही कर लेना चाहिए। नहीं तो इनके भयंकर दुष्परिणाम हो सकते हैं। अत: ऐसा ना हो कि हम आग लगने पर कुआ खोदना तो मुर्खता होगी। हमें जागरुक होकर इनका आने से पहले ही प्रबन्धन कर लेना चाहिए।
अथवा
उत्तर :
‘लक्ष्मण-परशुराम संवाद’ में सीता स्वयंवर में शिवजी के धनुष- भंग होने से परशुराम क्रोध करते हुए आये और राजा जनके से कहा कि शिव-धनुष किसने तोड़ा है ? तब श्रीराम ने कहा कि यह कार्य आपके किसी दास ने ही किया है। परशुराम ने कहा कि दास या सेवक शत्रुता का काम नहीं करता है। मैं उसको कदापि क्षमा नहीं करूंगा। तब लक्ष्मण ने आगे आकर कहा कि ऐसे धनुष तो हमने बचपन में कई तोड़े हैं । परन्तु धनुष तोड़ने पर ऐसा क्रोध किसी ने नहीं किया।
तब क्रोध में आकर परशुराम ने लक्ष्मण को अपना फरसा दिखाया और उसकी मृत्यु निकट आने का दुर्वचन कहा। लक्ष्मण ने भी प्रत्युत्तर देते हुए अनेक व्यंग्य वचन कहे तथा कहा कि हम भी कोई छुईमुई के फूल-पौधे नहीं हैं। हम कोई कुम्हड़बतिया गन्ना का खंडा नहीं हैं। हमारे कुल में ब्राह्मण, गाय, देवता एवं भक्त पर हथियार नहीं चलाते हैं। इसलिए तुम्हारे अनुचित क्रोध को क्षमा कर देता हैं। इस तरह तीखा संवाद दोनों के मध्य हुआ। अन्त में परशुराम की क्रोधाग्नि को मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने लक्ष्मण को शांत रहने तथा विनम्रता से, शांत वाणी से उनको प्रिय वचन बोल कर क्षमा करने का आग्रह किया।
उत्तर 18:
‘अमर-शहीद’ एकांकी में सागरमल गोपा के इस कथन का अभिप्राय है कि स्वतन्त्रता सेनानियों के साहस, शौर्य, त्याग, देशप्रेम तथा कष्ट-सहिष्णुता को सहन कर अपने प्राणों का बलिदान कर देता है। उसका उद्देश्य देशवासियों में स्वतन्त्रता की भावना रखना, देश-प्रेम की खातिर त्याग-बलिदान की प्रेरणा देना होता है। वह देश के लिए अपना आत्मोत्सर्ग करने को सदैव अग्रसर होता है। सागरमल गोपा जेलर से कहता है कि यज्ञ में आहुति देने वाला यह नहीं देखता है कि उससे लपट उठती है कि नहीं वह तो आहुति देना अपना धर्म समझता है।
इसी प्रकार देशभक्त तो प्राणोत्सर्ग करना अपना कर्तव्य समझता है। भाव यह है कि अपने प्राणोत्सर्ग से अनेक शहीदों को आत्म बलिदान के लिए प्रेरित करता है। एक शहीद के बलिदान से प्रेरणा लेकर अनेक देशभक्त सामने आ जाते हैं और उसी के बताए आत्म-बलिदान के मार्ग पर चल पड़ते हैं। इसलिए देश के स्वतन्त्रता रूपी यज्ञ में मेरे प्राणों की आहुति चाहे पूर्णाहूति अर्थात् अन्तिम बलिदान न हो सके, परन्तु इससे आगे भी देशभक्तों के त्याग-बलिदान की परम्परा कायम रहेगी, इस यज्ञ की ज्वाला आगे भी जलती रहेगी। अब इस स्वतन्त्रता रूपी यज्ञ की ज्वाला को कोई बुझा नहीं सकता है, कोई भी इस पावन परम्परा को तोड़ या रोक नहीं सकता है।
अथवा
उत्तर :
मध्यकालीन भक्तिधारा में स्वामी रामानन्द के सभी शिष्यों का विशेष योगदान माना जाता है। इनमें सन्त कबीर, पीपा, रैदास, धन्ना तथा सेन सन्त एवं कवि दोनों रूपों में प्रसिद्ध हैं। जहाँ तक सन्त पीपा का सम्बन्ध है, इनका कोई ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, परन्तु इनके कुछ पद ग्रन्थ साहब में मिलते हैं। राजस्थान के दक्षिणी भाग के लोक-जीवन में सन्त पीपा की वाणी का मौखिक प्रचलन दिखाई देता है। इनकी वाणी साखी की तरह है जिनमें लोकानुरंजन तथा लोकानुभव को सुन्दर समावेश है।
मध्यकालीन भारत में समाज में बाह्याडम्बरों, रूढ़ियों, दुर्व्यसनों तथा अन्धविश्वासों का बोलबाला था। मूर्ति-पूजा एवं बहु-देववाद पर जोर था। सन्त कवि होने से पीपा ने अपनी वाणियों के माध्यम से कुरीतियों एवं अन्धविश्वासों का विरोध किया। इन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध कर निर्गुण-निराकार परमब्रह्म की भक्ति और आत्मा व परमात्मा की एकता पर बल दिया। सन्त पीपा ने परमात्मा को सर्वत्र व्याप्त, सबका पिता और सर्वशक्तिमान बताया। इस प्रकार निर्गुण भक्ति-धारा के साथ ही समाज सुधार का कार्य करने से मध्यकालीन सन्त परम्परा में सन्त पीपा का विशेष योगदान है।
उत्तर 19:
गोपियों की आँखें श्रीकृष्ण की रूप-सौंदर्य रूपी धारा में बिना किसी सहारे के दौड़कर धंस गई हैं। रूपासक्त गोपियाँ कहती हैं कि अब तो इन आँखों पर मेरा कोई वश नहीं है। ये आँखें तो श्रीकृष्ण के रूप-रस की लालची बनी हुई हैं और उन्हें देखते ही ये इनकी दासी बन गई हैं।
उत्तर 20:
‘कल और आज’ कविता में कवि ने यह बताया है कि एक ऋतु के बाद दूसरी ऋतु आती है। कल के बाद आज आता है। ग्रीष्म ऋतु में लू-ताप से सभी प्राणी व्याकुल रहते हैं, किसान इस ऋतु में निराश-हताश रहते हैं, परन्तु ज्यों ही ग्रीष्म समाप्त होती है और वर्षा ऋतु आती है, तो सभी प्राणी प्रसन्न हो जाते हैं। किसान भी वर्षा ऋतु के आगमन से खुश हो जाते हैं। उन्हें खेतों से अच्छी फसल मिलने की आशा होने लगती है। कवि ने ऋतु चक्र का सजीव वर्णन किया है।
उत्तर 21:
‘कन्यादान’ कविता का मूल भाव इस प्रकार है-कवि ऋतुराज ने इस कविता में बताया है कि पुरुष-वर्ग द्वारा नारी-समाज के लिए अनेक बन्धन परम्परा के रूप में गढे गये हैं। इसमें समकालीन सामाजिक जीवन की स्थितियों को लेकर कवि ने नारी-जागरण का सन्देश दिया है। प्रायः पुरुषों के द्वारा नारी-सौन्दर्य की प्रशंसा की जाती है, उसे वस्त्राभूषणों का लालच दिया जाता है तथा इससे उसे गुलाम या दासी जैसी बनाये जाने का प्रयास किया जाता है। नारीसमाज को दहेज की विकृतियों से बचने का प्रयास करना चाहिए।
उत्तर 22:
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को वर्तमान हिन्दी गद्य को प्रवर्तक माना जाता है। भाषा और साहित्य दोनों पर उनका स्थायी प्रभाव पड़ा। उन्होंने गद्य की भाषा को परिमार्जित कर उसे मधुर और प्रभावशाली बनाया। वे हिन्दी के सुधारवादी कवि थे। प्राचीन और नवीन का सामंजस्य भारतेन्दुजी की सबसे बड़ी विशेषता है।
भारतेन्दुजी की भाषा में संस्कृत के तत्सम व तद्भव शब्दों की बहुलता है। इन्होंने भाषा में लालित्य बढ़ाने के लिए लोकोक्तियों और मुहावरों का प्रयोग किया है। अपनी सभी रचनाओं में रोचकता बढ़ाने के लिए हास्य और व्यंग्य का भी प्रयोग किया है। ‘अद्भुत अपूर्व स्वप्न’ निबन्ध में भारतेन्दु जी की सहज विनोद-प्रिय प्रवृत्ति दिखाई देती है। इसमें उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त बाह्याडम्बर, समाज की धर्मान्धता, स्वार्थपरता और अंग्रेजी शिक्षा के दुष्प्रभावों का एक व्यंग्यपूर्ण चित्र अपनी हास्य-व्यंग्य शैली में प्रस्तुत किया है; जैसे“यही अंग्रेजी शिक्षा रहीं तो मंदिर की ओर मुख फेर कर कोई नहीं देखेगा।”
शिक्षा के क्षेत्र में लोगों की क्या धारणा थी, इस पर भी लेखक ने पाठशाला के अध्यापक नियत करते समय व्यंग्यात्मक शैली में कहा कि “हिमालय की कन्दराओं में से खोज-खोज कर अनेक उद्दण्ड पंडित बुलवाये।” इस प्रकार भारतेन्दुजी युगीन प्रवृत्तियों के अनुरूप अनेक सहज, सरल तथा हास्य व्यंग्य-विनोद की शैली के सिद्धहस्त लेखक हैं।
उत्तर 23:
‘गौरा’ की मृत्यु का कारण यह था कि गौरा के आ जाने से लेखिका के घर में ग्वाले का दूध बन्द हो गया था। लेखिका उससे अधिक दूध लेती थी। अपना नुकसान मानकर तथा ईर्ष्यावश वह ग्वाला लेखिका के घर में दुधारू गाय का आना सह नहीं सका। इसलिए उसने असमय ही गाय की मृत्यु निश्चित करने के लिए उसे सुई खिला दी। उसने अवसर मिलते ही चुपचाप गाय को गुड़ में लपेटी गई सुई खिला दी थी। उसका सोचना था कि गौरा गाय के मर जाने पर उस घर में वह पहले की तरह अधिक दूध दे सकेगा।
उत्तर 24:
हामिद ने सोचा कि रोटियाँ पकाते समय दादी के हाथ जल जाते हैं, यदि वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे, तो वह कितनी प्रसन्न होंगी ? हामिद के पास तीन पैसे थे, जबकि दुकानदार चिमटे की कीमत छह पैसे बता रहा था। अन्त में उसने तीन पैसे का चिमटा खरीद लिया। जब वह गाँव लौटा तो हामिद की दादी ने पूछा कि वह क्या लाया है। तब उसने कहा तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने चिमटा ले लिया। यह सुनकर बुढ़िया अमीना का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया।
उत्तर 25:
सेनापति की उक्त पंक्तियों में वर्षा ऋतु का वर्णन है।
उत्तर 26:
‘मातृ-वन्दना’ कविता में कवि ने अपने श्रम का श्रेय भारत माता को दिया है।
उत्तर 27:
आध्यात्मिक दृष्टि से कन्याकुमारी का महत्त्व यह है कि यहाँ तीन सागरों का संगम होता है तथा विवेकानन्द ने संगम स्थल पर समाधि लगायी थी। विवेकानन्द स्मारक एवं उमा की तपस्या का स्थान पवित्र धरोहर है।
उत्तर 28:
परनिन्दा के विषय में दादू ने कहा है कि जिसके हृदय में राम का निवास नहीं है, वही निन्दा करता है। उन्होंने अपने शिष्यों को परनिन्दा नहीं करने का उपदेश दिया है।
उत्तर 29:
1. तुलसीदास का संक्षिप्त परिचय–तुलसीदास का जन्म उत्तरप्रदेश के बाँदा जिले के राजापुर गाँव में संवत् 1589 के लगभग माना जाता है। इनके पिता का नाम आत्माराम था जो एक सरयूपारीण ब्राह्मण थे। इनकी माता का नाम हुलसी था। कहा जाता है। कि तुलसीदास अभुक्त मूल नक्षत्र में पैदा हुए थे तथा जन्म लेते ही इनकी अवस्था पाँच वर्ष के बालक के समान थी। मुंह में दाँत भी निकले हुए थे। भय की आशंका के चलते माता-पिता ने इन्हें त्याग दिया तथा मुनिया नामक दासी को दे दिया, जिसने इनका पालनपोषण किया। इनका बाल्यकाल कष्टपूर्ण बीता।
इनके गुरु का नाम नरहरिदास बताया जाता है। इनकी पत्नी रत्नावली विदुषी थी किन्तु किसी कारणवश वैवाहिक जीवन अधिक समय तक न चल सका। इन्होंने गृह त्याग कर दिया तथा घूमते-घूमते अयोध्या पहुँच गए। वहीं पर संवत् 1631 में इन्होंने ‘रामचरितमानस की रचना प्रारम्भ की। बाद में ये काशी आकर रहने लगे। जीवन के अंतिम दिनों में पीड़ा शांति के लिए इन्होंने हनुमान की स्तुति की जो ‘हनुमान बाहुक’ नाम से प्रसिद्ध है।
तुलसी आदर्शवादी कवि थे। इन्होंने आदर्श चरित्रों का सृजन कर हमें अपने दैनिक जीवन में उनके अनुकरण का संदेश दिया है। ये अवधी और ब्रज भाषा दोनों के पंडित थे। दोनों भाषाओं का शुद्ध और परिमार्जित रूप इन्होंने अपनाया।
इन्होंने राम के अनन्य भक्त के रूप में दास्य भाव अपनाते हुए अनेक काव्यग्रन्थों की रचना की, जिनमें से निम्नलिखित प्राप्त हैं- रामचरितमानस, विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली, कवितावली, रामाज्ञाप्रश्न, बरवैरामायण, जानकीमंगल, पार्वतीमंगल, रामललानहछु, वैराग्य संदीपनी तथा श्रीकृष्ण गीतावली।
2. मुंशी प्रेमचंद का संक्षिप्त परिचय
मुंशी प्रेमचंद का व्यक्तित्व-हिन्दी जगत में कलम के सिपाही के नाम से मशहूर मुंशी प्रेमचंद का जन्म वाराणसी जिले के लमही ग्राम में हुआ था। उनका मूल नाम धनपतराय था। सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद उन्होंने अपना सारा जीवन लेखन कार्य के प्रति समर्पित कर दिया। प्रेमचंद उर्दू में नवाबराय के नाम से लेखन कार्य करते थे। उपन्यास के क्षेत्र में उनके योगदान को देखकर बंगाल के विख्यात उपन्यासकार शरतचंद्र चट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर सम्बोधित किया था।
प्रेमचंद ने अपने साहित्य में किसानों, दलितों, नारियों की वेदना और वर्ण-व्यवस्था की कुरीतियों का मार्मिक चित्रण किया है। उन्होंने समाज-सुधार और राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक उपन्यासों एवं कहानियाँ की रचना की। कथा-संगठन, चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि की दृष्टि से उनकी रचनाएँ बेजोड़ हैं। उनकी भाषा सजीव, मुहावरेदार और बोलचाल के निकट है। हिन्दी भाषा को लोकप्रिय बनाने में उनका विशेष योगदान है।
प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह ‘सोजे-वतन’ नाम से आया जो 1908 में प्रकाशित हुआ। ‘सोंजे वतन’ यानी देश का दर्द। देशभक्ति से ओत-प्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेजी सरकार ने रोक लगा दी और लेखक को भी भविष्य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। इसके कारण उन्हें नाम बदलकर लिखना पड़ा। मरणोपरान्त उनकी कहानियाँ मानसरोवर नाम से 8 खंडों में प्रकाशित हुईं।
कतित्व
RBSE Class 10 Hindi Model Paper 2018 Q 29
उत्तर 30:
(i) ओवर टेकिंग पर प्रतिबन्ध का संकेत।
(ii) प्रतिबंध समाप्त होता है या नो पार्किंग का संकेत।
(iii) दाहिने मोड़ पर प्रतिबन्ध को संकेत।
(iv) एक ही रास्ता का संकेत।
We hope that this post will help you to understand the exam pattern of R.B.S.E. If you have any query regarding Rajasthan Board of Education sample papers for Class 10, drop a comment below. Thank you!

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